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देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

म॒हाँ इन्द्रो॒ य ओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ इ॑व । स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahām̐ indro ya ojasā parjanyo vṛṣṭimām̐ iva | stomair vatsasya vāvṛdhe ||

पद पाठ

म॒हान् । इन्द्रः॑ । यः । ओज॑सा । प॒र्जन्यः॑ । वृ॒ष्टि॒मान्ऽइ॑व । स्तोमैः॑ । व॒त्सस्य॑ । व॒वृ॒धे॒ ॥ ८.६.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

भगवान् के महान् यश को दिखलाने के लिये अग्रिम ग्रन्थ का आरम्भ किया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों ! इन्द्रवाच्य ईश्वर को छोड़ अन्यों को क्योंकर पूजते हो। (यः) जो (इन्द्रः) इन्द्र नामधारी परमात्मा (ओजसा) जगत् के सृजन, पालन और संहरणरूप बल से (महान्) बहुत बड़ा है, उसी की पूजा करो, वह (वृष्टिमान्) जलप्रद (पर्जन्यः+इव) मेघ के समान है। जैसे मेघ जल सिक्त करके प्रत्येक वस्तु को पुष्ट करता, बढ़ाता और विविध वर्णों से भूषित करता है, तद्वत् परमात्मा है। वह परमात्मा (वत्सस्य) पुत्रस्थानीय भक्तजन की (स्तोमैः) स्तुतियों से प्रसन्न होकर (वावृधे) उसके सुखों को सब प्रकार बढ़ाता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! भगवान् का महत्त्व सृष्टिविद्या के अध्ययन से जानो। जो ये जगत् के धारक, पोषक, सुखप्रापक मेघ, वायु, वह्नि और सूर्य्य प्रभृति हैं, वे भी उसी से उत्पन्न, वर्धित और नियोजित हैं, ऐसी श्रद्धा करो ॥१॥
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आर्यमुनि

अब सर्वशक्तिमान् परमात्मा की स्तुति करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, इन्द्रः) जो परमैश्वर्यसम्पन्न परमात्मा (ओजसा) अपने पराक्रम से (महान्) महत्त्वविशिष्ट पूज्य माना जाता है (वृष्टिमान्, पर्जन्यः, इव) वृष्टि से पूर्ण मेघ के समान है, वह (वत्सस्य) वत्सतुल्य उपासक के (स्तोमैः) स्तोत्रों से (वावृधे) वृद्धि को प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा की स्तुति वर्णन की गई है कि वह महत्त्वविशिष्ट परमात्मा अपने पराक्रम=अपनी शक्ति से ही पूज्य=प्रतिष्ठा योग्य है, उसको किसी अन्य के साहाय्य की आवश्यकता नहीं। जिस प्रकार वृष्टि से पूर्ण मेघ फलप्रद होता है, इसी प्रकार वह पूर्ण परमात्मा भी सबको फल देनेवाला है और वह वत्स=पुत्रसमान उपासकों के स्तोत्र=स्तुति योग्य वाक्यों से वृद्धि को प्राप्त होता अर्थात् प्रचार द्वारा अनेक पुरुषों में प्रतिष्ठित होता है, इसलिये उचित है कि हम लोग श्रद्धा भक्ति से नित्यप्रति उस परमपिता परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त रहें, ताकि अन्य परमात्मविमुख पुरुष भी हमारा अनुकरण करते हुए श्रद्धासम्पन्न हों ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

भगवतो महद्यशो दर्शयितुमग्रग्रन्थारम्भः।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! इन्द्रवाच्यमीश्वरं विहायान्यान् कथं पूजयथ। यः=खलु इन्द्राभिधेयः परमात्मा। ओजसा=स्रष्टृत्वपातृत्वसंहर्त्तृत्वबलेन। महान्=पृथिव्या महान्, आकाशान्महान्, सर्वेभ्यो महानस्ति। तमेव पूजयत। स हि वृष्टिमान्=वारिप्रदः। पर्जन्यः=मेघ इवास्ति। यथा मेघो जलानि सिक्त्वा सर्वं वस्तुजातं पोषयति वर्धयति भूषयति च नानावर्णैः। तथेशोऽपि। स परमात्मा। वत्सस्य=पुत्रस्येव भक्तस्य। स्तोमैः=स्तुतिभिः। प्रसन्नः सन्। वावृधे=वर्धयति सुखानि ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ सर्वशक्तिमान् परमात्मा स्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, इन्द्रः) यः परमैश्वर्यसम्पन्नः परमात्मा (ओजसा) पराक्रमेण (महान्) महत्त्वविशिष्टः पूज्यो वा (वृष्टिमान्, पर्जन्यः, इव) जलपूर्णो मेघ इव (वत्सस्य) वत्सस्थानीयस्योपासकस्य (स्तोमैः) स्तोत्रैः (वावृधे) वृद्धिं प्राप्नोति ॥१॥